भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोजागर / नामवर सिंह

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:21, 10 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= नामवर सिंह }} कोजागर दीठियों की डोर-खिंचा (ऊगते से)इंद...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोजागर

दीठियों की डोर-खिंचा

(ऊगते से)इंदु का आकासदीप-दोल चढ़ा जा रहा।

गोरोचनी जोन्ह पिघली सी

बालुका का तट, आह, चन्द्रकान्तमणि सा पसीज-सा रहा।

साथ हम

नख से विलेखते अदेखते से

मौन अलगाव के प्रथम का बढ़ा आ रहा।

अरथ-उदास लोचनों में नदी का उजास

टूटता, अकास में, कपास-मेघ जा रहा।

नीर हटता सा

क्लिन्न तीर फटता सा गिरा

किंतु मूढ़ हियरा, तुझे क्या हुआ जा रहा।