भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छंद 63 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:16, 29 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विज |अनुवादक= |संग्रह=शृंगारलति...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोहा
(कवि की उक्ति)

कलम गह्यौ मनकै सुदृढ़, ता छन देब-मनाइ।
सुभ सिँगार-लतिका सकल, जग-फैलन के चाइ॥

भावार्थ: ऐसा सुन, मैंने दृढ़ता से कलम अर्थात् लेखनी हाथ में ली और ‘कुलदेव’ व ‘इष्टदेव’ को स्मरण कर ‘शुभ शब्द’ के उच्चारणपूर्वक ‘शृंगारलतिका’ को जगत् मंे फैलाने का उद्योग किया। यह ज्ञात रहे कि वेली आदि उद्यानों में सदा कलम ही लगाकर बढ़ाई जाती हैं और इसी युक्ति से एक की अनेक होकर फैलती जाती हैं।