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दिल बंजर-बंजर लगता है / ध्रुव गुप्त
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दिल बंजर-बंजर लगता है
कैसा तो दिन भर लगता है
चांद से अपनी चारागरी है
छत पे अब बिस्तर लगता है
दिन डूबे तक घर आ जाओ
अब सड़कों पर डर लगता है
हर रिश्ता एक जंग है जिसमें
पीठ में ही ख़ंजर लगता है
इतने ख्वाब दफ़न हैं इसमें
दिल मुर्दों का घर लगता है
वह मेरा साया था कल तक
अब मुझसे हटकर लगता है
बाहर-बाहर देखने वालों
घुन अंदर-अंदर लगता है