Last modified on 3 जुलाई 2017, at 11:33

छंद 162 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:33, 3 जुलाई 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विज |अनुवादक= |संग्रह=शृंगारलति...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दुर्मिल सवैया
(विरह-निवेदन-वर्णन)

सब ऐसैंई अंग हुते तिय के, कछु प्रान-बिहीन ह्वै बोले परे।
‘द्विजदेव’ जू ता पैं बियोग की झारि, हिए मैं हजार-फफोले परे॥
इक आज लौं वे अरबिंद से नैनहुँ, ते कछु आनन-खोले परे।
चलिऐ बलि बेगि? न तौ अब नैनऊ, प्रान सौं चाँहत पोले परे॥

भावार्थ: हे कृष्ण! उस विरहिणी नायिका के सर्वांग कुछ योंही आपके वियोग से प्राणरहित से हो चुके थे, तिसपर वियोगानल की लपट से उसके हृदय में अनेक फफोले पड़ गए। केवल आपकी आगमन-प्रतीक्षा के कारण ही अद्यावधि उसके नेत्र खुले हुए बाट जोह रहे हैं, अतः यदि आप शीघ्र ही न पधारेंगे तो नेत्र भी पोले पड़ जाएँगे अर्थात् प्राणरहित हो जाएँगे और पूर्णतया दशमावस्था (मरण) प्राप्त हो जाएगी। ‘प्राण’ शब्द से ‘साध्यवसाना लक्षण’ है।