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कर्ण-एगरमा सर्ग / रामधारी सिंह ‘काव्यतीर्थ’

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सुखलोॅ लकड़ी

कृष्ण बड़ाय करै छेलै, महादानी कर्ण के
ई सुनी केॅ जलै छेलै हिया युधिष्ठिर के।

एक समय बरसाती रात, रितु भी बरसात के
ब्राह्मण भेष में कृष्ण, गेलै घोॅर युधिष्ठिर के।

युधिष्ठिर सेॅ मांगलकै, सुखलोॅ लकड़ी दान
युधिष्ठिरें खोजेॅ लगलै सगरे घोॅर मकान।

सुखलोॅ लकड़ी नहियें मिललै युधिष्ठिर परेशान,
नकारात्मक उत्तर सुनी बाबाजी लौटलोॅ निज मकान।

लगलै कृष्ण वही भेषों में गेलै कर्ण मकान,
सुखलोॅ लकड़ी के मांग करलकै, कर्ण मुँह मुस्कान।

वर्षाकाल में सुखलोॅ काठ धरलोॅ नै छै नृप महान
चंदन काठ किवाड़ तोड़ी केॅ कर्णें करलकै वै राती दान।

जाय केॅ कृष्णें कहलकै धर्मराज युधिष्ठिर केॅ
कर्णें देलकै हमरा सुखलोॅ चंदन काठ किवाड़ के

आबेॅ तोंही बतावोॅ जी के छोॅ पात्रा बड़ाई के,
कर्णदानी नै महादानी छै सुनोॅ तोंय कान खोली केॅ।


सोना दांत के दान

दोहा
महाभारत के रण में, मचलै घमासान
बड़ोॅ-बड़ोॅ योद्धा मरल, बनलै क्षेत्रा मशान।

अर्जुन कर्ण के युद्ध में, कर्ण मरन आसन्न
युधिष्ठिर कहै कृष्ण केॅ, दान लेॅ कर्ण विपन्न।

कृष्ण पहुँचै कर्ण पास, मांगै सोना दान
सोना दांत तोड़ी केॅ, देलकै कर्ण दान।

धन्य-धन्य कही उठलै, कर्ण तोर छौं दान
युग-युग नाम तोर रहेॅ, जब तक सूरज चान।