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लोग ये जो भी / अमरेन्द्र

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लोग ये जो भी कहंे
मैं तुम्हारा हो चुका।

अब नहीं है डर मुझे
नाव है मँझधार में
भँवर रह-रह कर उठे
बह रहे इस प्यार में
है पता जग को नहीं
मैं किनारा हो चुका।

मैं नहीं था जानता
जूही-चमेली-गन्ध क्या
पँखुड़ी कोमल कुसुम की
और है मकरन्द क्या
आज मैं चन्दन हुआ
गुलहजारा हो चुका।

प्राण-काया-सी रहो
फूल-खुशबू-सा रहूँ
राग उसका तुम बुनो
गीत जो भी मैं कहूँ
शब्द को है अर्थ का
अब सहारा हो चुका।