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यही सोचकर-कल क्या बीते / अमरेन्द्र
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यही सोचकर कल क्या बीते
ये भी क्षण जाए न रीते।
किसको है मालूम नहीं यह
जिसका अगला चरण जहाँ है
नील वसन में, नील वर्ण में
पहले से ही मृत्यु वहाँ है
कुछ भी तो आभास न मिलता
कौन कहाँ हारे, कब जीते।
जीवन लगता इन्द्रधनुष तो
कभी फूल अर्थी पर फेके
सब पूजा में खड़े हुए हैं
आगिन को हाथों में ले के
किसे नहीं चाहत मधु की, पर
उम्र गुजरती आँसू पीते।
ऐसा हो, पर ऐसा न हो
छोड़ो इन बातों को साथी
सन्ध्या उतर गई आँगन में
अब तक जली नहीं सँझवाती
सपने चिथड़े-चिथड़े न हों
जगह-जगह से सीते-सीते।