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एक जन्म तो तुम्हें देख कर / अमरेन्द्र
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एक जन्म तो तुम्हें देख कर जी लूँगा मैं
प्यार करूँगा आने पर-अगले जीवन में।
तुम जब देखो मुझको, तो मैं क्या बतलाऊँ
पत्थर मन का होकर भी मैं पिघला जाऊँ
कैसी आग लगा देती हो तुम इस तन में !
जादू-टोना वाला रूप कहाँ से लाई
आँखों में यह झील झील में चाँद-जुन्हाई
तुम समाधि का भाव जगा जाती हो क्षण में।
प्यार तुम्हारा पाने को मन तरस गया है
पागलपन का बादल मुझ पर बरस गया है
लेकिन पाना क्या संभव है पागलपन में।
आग-राग में एक जन्म तक जेठ तपेगा
यादों का उजला-काला कुछ मेघ बनेगा
तब भीगेगा मौसम का तन-मन सावन में।