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पत्थर पर लिखता था / अमरेन्द्र

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पत्थर पर लिखता था अँगुली से भाग
एक न लकीर खिंची, एक भी न दाग।

अंगुली तक घिस डाली नाखून को घिस-घिस कर
आशा-आकांक्षा सब, सने गए पिस-पिस कर
पत्थर के पोर-पोर रक्त सने रंजित हैं
आँसू संग लहू बहे जाने कब रिस-रिस कर
फन काढ़े रग-रग में तक्षक और नाग।

आँखों के आगे यह कैसा अन्धेरा है
डायन का, ओझा का यह किसका घेरा है
एक शोर उठता है, क्रन्दन का, बार-बार
कान लगा जब भी सुना, पाया वह मेरा है
फिर भी न जाता है मन से अनुराग।

अब से छतनायेगा शूल मेरे तन-मन में
एक चिता धधकेगी आँखों के आँगन में
बरसेगा फागुन में खूब मेघ बरस-बरस
बालू की आँधी घिर आयेगी सावन में
शेष समय चलना है, लेकर अब आग।