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एक रात तेरे बिन / अमरेन्द्र

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एक रात तेरे बिन मैंने अहसास किया
घड़ियों में, चौदह बरसो का वनवास किया।

सुधियों का हिरन रहा रात भर ही अगुआते
मेरा वनवासी मन और रहा पिछुआते
ऐसे ही, धरती से मैंने आकाश किया।

वंशी पर रात-रात छेड़ा था रागों को
लेकिन कब कोई हिरण मिलता हतभागों को
सारी रात किस्मत ने जी भर उपहास किया।

रात-रात महुआ के फूल खिले आँखों में
शूल चुभे रात-रात, पलकों की पाँखों में
मन तो था वृन्दावन, लेकिन सन्यास किया।