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आखिर साथ-साथ ही चलकर / अमरेन्द्र

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आखिर साथ-साथ ही चलकर
दोनों आ पहुँचे मंजिल पर।

तुम जब पहली बार मिले थे
दोनों ही दो बन्द किले थे
लेकिन दीवारों के पीछे
जूही के दो फूल खिले थे
जाने कब दीवारें टूटीं
कब उमड़ा-खुशबू का सागर।

जहाँ पड़े थे पत्थर पहले
वहीं नदी की धार बही है
वह जो रेत-रेत ही कल था
दूर-दूर तक कहीं नहीं है
फूल, किनारों पर उग आए
कुल पलाश के, महुआ जी भर।

कल-कल, मह-मह, चह-चह भी हैं
मोक्ष मिला, तुम मिले जो साथी
मैं गीतों में बाँध उन्हंे दूँ
कल तुमने जो लिखी थी पाती
चन्दन-वन-से महक उठे
मेरे गीतों के आखर-आखर।