Last modified on 24 अगस्त 2017, at 15:28

परसों हम मिले थे / राकेश रोहित

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:28, 24 अगस्त 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश रोहित |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

परसों हम मिले थे
याद है?
मैंने संजो रखी है वह मुलाक़ात!

आजकल मैं छोटी- छोटी चीज़ सहेजता रहता हूँ
जैसे काग़ज़ का वह टुकड़ा
जिस पर किसी का नम्बर है पर नाम नहीं
जैसे पुरानी क़लम का ढक्कन
खो गया है जिसका लिखने वाला सिरा
जैसे बस की रोज़ की टिकटें
उस एक दिन का छोड़ जब मैं खुद से नाराज़ था
जैसे अख़बार के संग आए चमकीले पैम्फ़लेट
जैसे भीड़ भरी बस में
एक अनजान लड़की की खीज भरी मुस्कान!

जब कोई मेरे साथ नहीं होता
मैं उलटता-पलटता रहता हूँ इन चीज़ों को
जो मेरे पास है और जो मेरे मन में है
नौकरी मिलने पर भाई ने पहली बार चिट्ठी लिखी थी
पिता ने बताया था घर आ जाओ
शादी पक्की हो गई है
माँ ने कहा था कोई दवाई काम नहीं करती
मशरूम वाली दवाई खा लूँ
दोस्त ने शहर आने की सूचना दी थी
और आया नहीं बता कर भी
बहुत सी स्मृतियाँ मैं अपने साथ समेट कर
भीड़ भरे शहर में अनमना घूमता रहता हूँ।

यह जो असबाब इकट्ठा कर रखा है मैंने
मन के अन्दर और घर के उदास कोनों में
क्या एक दिन मैं इनको सजाकर तरतीब से
खोजूँगा अपनी ज़िन्दगी का उलझा सिरा
और किसी गुम हँसी को अपने चेहरे पर सजा कर
गाने लगूँगा कोई अधूरा गीत!

कल मुझे अचानक वह नाम याद आया
जिससे दोस्त मुझे बुलाते थे
मुझे उनका इस तरह पुकारना कभी पसन्द नहीं आया
पर मैंने उसे भी संजो लिया है
और कई बार ख़ुद को पुकार कर देखता हूँ उस नाम से
क्या वह आवाज़ अब भी मुझ तक पहुँचती है!

अख़बार के कई पीले पड़ गए टुकड़े
जिस पर छपी ख़बर की प्रासंगिकता भूल चुका हूँ मैं
अब भी रखे हैं मेरी पुरानी कॉपी में
और साहस कर भी उन्हें फेंक नहीं पाता
क्या था उन ख़बरों में जिन्हें मैं सहेजता आया इतने दिन
सोचता हूँ और गुज़रता हूँ
स्मृति की अनजान गलियों में
किसी दिन वह जागता हुआ क्षण था
अब जिसकी याद भी बाक़ी नहीं है।

सहेजता हुआ कुछ अनजाना डर
मैं कुरेदता रहता हूँ
अनजान चेहरों में छुपा परिचय
संजोकर रखता हूँ कुछ अजनबी मुस्कराहटें
परसों हम मिले थे
याद है?
पर क्या हम कल भी मिले थे?