भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पेइचिंग : कुछ कविताएँ-4 / सुधीर सक्सेना

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:47, 18 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुधीर सक्सेना |संग्रह=समरकंद में बाबर / सुधीर सक्सेना }...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस कदर लम्बी है

लम्बी दीवार

कि लुढ़का दो

सूरज के गोले को तो

लुढ़कता चला जाए

वो छह हज़ार मील


कुलाटियाँ खाता

मोड़ों पर उछलता दाएँ-बाएँ

लुढ़कता चला जाए सूर्य

छह हज़ार मील

ग़र ऎसा हो तो

सूर्य लुढ़के

और हमारे सामने हो

दुनिया के इतिहास में अब तक का

अब तक का सबसे दिलचस्प,

सबसे मज़ेदार,

सबसे हैरतअंगेज़ खेल का

अविस्मरणीय नज्ज़ारा।