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ख़ुदयक़ीनी / आर. चेतनक्रांति

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खुदयक़ीनी भी एक चीज़ थी
जैसे कोट और कमीज़
बदन पर डालकर निकलते तो खुद-ब-खुद बाँबियों से अलग हो जाते
पैसों की तरह हम उसे कमाया करते
सहेजकर रखते
सन्तानों के लिए

वह मोटे तले का जूता थी
पुरानी घोड़े की नाल पर कसा हुआ
सब आवाज़ों के ऊपर जो ठहाक्-ठहाक् बजता
मिमियाती हुई जातियों और पीढ़ियों
और देश के सुदूर कोनों से ढेर-ढेर संशय लिए आती भीड़ के मुँह पर पड़ता

दुनिया के मुँह पर दरवाज़ा बन्द कर
हम उसका रियाज़ करते
शब्द बदलते, वाक्यों के तवाज़न में हेर-फेर करते
साँस में फूँकार भरते
पिण्डलियों में इस्पात ढालते
विशेषज्ञों से सलाह लेते
और तब युद्ध पर निकलते
और जीतकर लौटते

हारने की दशा में भी हम न हारते
हम सोचते कि हम जीत रहे हैं
और हम जीत जाते

ख़ुदयक़ीनी हमारी
पोले ढोल के ऊपर चमड़े का शानदार खोल थी
जब भी ख़तरा दिखाई देता,
हम उसे बेतहाशा पीट डालते
और सारे समीकरण बदल जाते।