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हिन्दू देश में यौन-क्रांति / आर. चेतनक्रांति

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मर्दों ने मान लिया था
कि उन्हें औरतें बाँट दी गईं
और औरतों ने
कि उन्हें मर्द
इसके बाद विकास होना था
इसलिए
प्रेम और काम, और क्रोध और लालसा और स्पर्धा,
और हासिल करके दीवार पर टाँग देने के पवित्र इरादे के पालने में
बैठकर सब झूलने लगे
परिवारों में, परिवारों की शाखाओं में
कुलों और कुटुम्बों में – जातियों-प्रजातियों में
विकास होने लगा
जंगलों-पहाड़ों को
म्याऊँ और दहाड़ों को
रौंदते हुए क्षितिज-पार जाने लगा
इतिहास के कूबड़ में
ढेरों-ढेर गोश्त जमा होने लगा
पत्थर की बोसीदा किताब से उठकर डायनासोर चलने लगा

कि यौवन ने मारी लात देश के कूबड़ पर और कहा –
रुकें, अब आगे का कुछ सफ़र हमें दे दें

पहले स्त्री उठी
जो सुन्दर चीज़ों के अजायबघर में सबसे बड़ी सुन्दरता थी
और कहा, कि पेडू में बँधा हुआ यह नाड़ा कहता है
कि कीमतों का टैग आप कहीं और टाँग लें महोदय
इस अकड़ी काली, गोल गाँठ को अब मैं खोल रही हूँ

सुन्दरता ने असहमति के प्रचार-पत्र पर
सोने की मुहर जैसा सुडौल अँगूठा छापा और नाम लिखा – अतृप्ति
कूबड़ थे जिनमें अकूत धन भरा था
कुएँ थे जिनमें लालसा की तली कहीं न दिखती थी
पर सुन्दरता का दावा न था कि वह इस असमतलता को दूर करेगी
इरादों की ऋजुरैखिक यात्रा में वह थोड़ी अलग थी
उसने एक नई धरती की भराई शुरू की
जो सितारे की तरह दिखती थी
चाँद की तरह
जिसकी मिट्टी में गुरुत्व नहीं था
जिसके ऊपर, नीचे, दाएँ, बाएँ आसमान था
तो भी घर-घर में एक इच्छा जवान होती थी
कि बेशक अमेरिका के बाद ही
पर एक दिन हम भी वहाँ जाकर रहेंगे

आँगन-आँगन कामना का इस्पात घिसता था
बुझी-गीली राख में रात-दिन
और तश्तरी की धार तेज होती जाती थी
तश्तरी घूमती थी और काटती थी
घूम-घूमकर काटती कतरती थी ककिड़यों-खरबूजों की तरह
हिन्दू देश में हिन्दुओं को

अपनी सांस्कृतिक दुविधाओं में खड़े
वे खच-खच कटते थे
अपनी विविधताओं में बुझे मोतियों से जड़े
धर्म के सुविधाजनक - उपेक्षित पिछवाड़े पड़े
वे चमार, लुहार, कुम्हार
ब्राह्मण, बनिए, सुनार

कहीं न थी पूरी तलवार
केवल धार
सड़क पर चिलचिलाती धूप में लहराती
निमिष-भर को दिखती
और खरबूजों-तरबूजों की तरह फले-फूले
और पाला खाई टहनियों-से सूखे-तिड़के
मर्दों के मेदे में उतर जाती
मनु का देश काँखता खड़ा रह जाता
और वह अगली धूप में पहुँच जाती
सारे पाण्डव, सारे कौरव, सारे राम, सारे रावण
अपने रचियताओं को पुकारते युद्ध से बाहर हुए जाते थे
दूर खड़े अपने हथियार चमकारते
चरित्रावान आत्माओं को जगाते – कहते,
यौवन ने मचा दिया ध्वंस
कल तक कैसे शान्त खड़ी लहराती थी संयम की फ़सल
आह, इतने आक्रामक तो न थे हिन्दू आदर्श

ये तो रास्ता छेंककर खड़ी हो जाती है
ये कौंधती टाँगें,
ये सुतवा¡ नितम्ब, ये घूरते स्तन, ये सोचती-सी नाभि
सर्वत्रा प्रस्तुत – कि जैसे हाथ बढ़ाओ, छू लो, खालो
पर इरादा कर बढ़ो तो.. रे सँभालो...
यही क्या हिन्दू सौन्दर्य है !

चकित थे हिन्दू
बलात्कार की विधियाँ सोचते, घूरते, घात लगाए, चुपचाप देखते, सन्नद्ध
कि भीम के, द्रोण के देश में जनखापन छाया जाता है
कि एक ही आकृति में स्त्री आती है और पौरुष जाता है
कि दृश्य यह अद्भुत है
पूछते विधाता से हाथ जोड़कर प्रार्थना में
और शाखा में पवन-मुक्तासन बाँधकर संचालकजी से –

कि इस दृश्य का लिंग क्या है, प्रभो !
हम क्रान्तिकारी नहीं थे

हम क्रान्तिकारी नहीं थे
हम सिर्फ अस्थिर थे
और इस अस्थिरता में कई बार
कुछ नाजुक मौकों पर
जो हमें कहीं से कहीं पहुँचा सकते थे
अराजक हो जाते थे
लोग जो क्रान्ति के बारे में किताबें पढ़ते रहते थे
हमें क्रान्तिकारी मान लेते थे
जबकि हम क्रान्तिकारी नहीं थे
हम सिर्फ अस्थिर थे

हम बहुत ऊपर
और बहुत नीचे
लगातार आते-जाते रहते थे
हम तेज भागते थे
अपने आगे-आगे
और कई बार हम पीछे छूट जाते थे

कई-कई दिन अपने से भी पीछे
घिसटते रहते थे

कोई भी चीज़ हमें देर तक
आकिर्षत नहीं करती थी

हम बहुत तेज़ी से आकर चिपकते थे
और अगले ही पल गालियाँ देते हुए
अगली तरफ भाग लेते थे

ज्ञान हमें कन्विंस नहीं कर पाता था
और किताबें खुलने से पहले
भुरभुरा जाती थीं

हम अपना दुख कह नहीं पाते थे
क्योंकि वह हमें झूठ लगता था

हम अपना सुख सह नहीं पाते थे
क्योंकि उसके लिए हमारे भीतर कोई जगह नहीं थी
और वह हमें बहुत भारी लगता था

हमारे आसपास बहुत सारी ठोस चीज़ें थीं
लेकिन हमें लगता रहता था
कि किसी भी क्षण हम हवा होकर उनके बीच से निकल जाएँगे

और फिर किसी के हाथ नहीं आएँगे
हम बहुत अकेले थे
और भीड़ में स्तब्ध खड़े रहते थे
लोग हमें छूने से डरते थे
जैसेकि हम रेत का खम्भा हों
हम रेत का खम्भा नहीं थे
लेकिन लोहे की लाट भी नहीं थे,
हम सिर्फ यह नहीं समझ पाए थे
कि भीड़ से बाहर रहते हुए भी भीड़ में कैसे हुआ जाता है
जबकि ज्यादातर चीजें इसी पर निर्भर थीं

कोई शिक्षा संस्थान हमें चालाकी नहीं सिखा पाया था
मार्च की गुनगुनी हवा हमें पागल कर देती थी
और हम सबकुछ भूल जाते थे

हम प्यार करना चाहते थे
लेकिन कर नहीं पाते थे
हम लिंगभेद से परेशान थे
और सम्बन्ध भेद से भी

समर्पित योनियाँ और आक्रामक शिश्न
हमारी वासना की नैतिकता को कचोटते थे
और हम एक बलात्कार को अनन्तकाल के लिए स्थगित कर देते थे

हम अपने ही शरीर में एक शिश्न और एक योनि साथ-साथ चाहते थे
ताकि हमें भाषा का सहारा न लेना पड़े

हमारे पास बहुत कम शब्द रह गए थे
जिन पर हमें यक़ीन था
और उनका इस्तेमाल हम कभी-कभी करते थे

हम गूँगे हो जाने को तैयार थे
पर उसकी भी गुंजायश नहीं थी
हर बात का जवाब हमें देना पड़ता था
और हर सवाल हमसे पूछा जाता था

हर जगह, हर समय एक युद्ध चल रहा था
हम लड़ना नहीं चाहते थे
लेकिन भागना भी हमारे वश में नहीं था

हम हारे, हम थके, हम पीछे हटे, हमने सारे हथियार उन्हें सौंप दिए
बाक़ायदा उनसे पिटे भी
लेकिन हमें जाने नहीं दिया गया

हमने परम्परागत आपत्तियों को मौक़ा देना छोड़ दिया
परम्परागत पैंतरों को उत्तेजित करना छोड़ दिया
इस तरह हम फालतू हुए
युद्ध के लिए बेकार
तब उन्हें यक़ीन हुआ कि हम लड़ नहीं सकते

वे एक-दूसरे को लड़ने की सुविधा देते हुए लड़ रहे थे
उनके बीच एक समझौता था
जो अनन्त से चला आ रहा था,
हमने उसे तोड़ा
इस तरह युद्ध क्षेत्र के बीच हम बचे

निस्सन्देह हमारा युद्ध नहीं था वह
और हम शुरू से इसे जानते थे

जो भी हमसे भिड़ा छटपटाते हुए मरा
क्योंकि वह लड़ने का आदी हो चला था
और हम बैठे सिगरेट पीते रहते थे

हम दफ्तरों से, घरों से, पिताओं और
पत्नियों से भागकर
सड़कों पर चले आते थे
जो सूनी होती थीं,
और बहुत सारे लोग उन पर आवाज़ किए बगैर रेंगते रहते थे

हर सड़क से हमारा कोई न कोई रिश्ता निकल आता था
और हम कम-से-कम एक दिन उसके नाम कर देते थे

हम मौत से भाग रहे थे
एक दिन हमें अचानक मालूम हुआ
कि वह हमारे पीछे-पीछे चल रही थी
हमारा हर क़दम मौत के आगे था
और उसका हर क़दम हमारे पीछे

हम जीवन-भर एक भी क़दम अपनी इच्छा से नहीं चले
हमें कोई पीछे से धक्का देता था
हमें सिर्फ भय लगता था
वही हमारी इच्छा थी

हम क्रान्तिकारी नहीं थे
हम सिर्फ अस्थिर थे
और स्थगित...

ये हमने मरने के बाद जाना कि
वह स्थगन ही
दरअसल उस समय की सबसे बड़ी क्रान्ति था।