जो कहा नही गया / अज्ञेय
लेखक: अज्ञेय
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है,अभी कुछ जो कहा नहीं गया ।
उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गई, सुख की स्मिति कसक भरी,निर्धन की नैन-कोरों में काँप गई, बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गई। अधूरी हो पर सहज थी अनुभूति : मेरी लाज मुझे साज बन ढाँप गई- फिर मुझ बेसबरे से रहा नहीं गया। पर कुछ और रहा जो कहा नहीं गया।
निर्विकार मरु तक को सींचा है तो क्या? नदी-नाले ताल-कुएँ से पानी उलीचा है तो क्या ? उड़ा हूँ, दौड़ा हूँ, तेरा हूँ, पारंगत हूँ, इसी अहंकार के मारे अन्धकार में सागर के किनारे ठिठक गया : नत हूँ उस विशाल में मुझसे बहा नहीं गया । इसलिए जो और रहा, वह कहा नहीं गया ।
शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ हैं पर इसीलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं। शायद केवल इतना ही : जो दर्द है वह बड़ा है, मुझसे ही सहा नहीं गया। तभी तो, जो अभी और रहा, वह कहा नहीं गया ।
(रचनाकाल / स्थल : दिल्ली, अक्टूबर, २७ , ५३)