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ओस की बूँद / अर्चना कुमारी
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परछाईयों पर पैर रखना
अतीत दोहराने जैसा
प्रतिध्वनियां खो देती हैं
संवेग अनुगूंज का
आईने की एक चिलक
प्रश्नचिह्न सा चिपक जाती हैं वजूद से
प्रतिबिम्ब के दरकने का भय
आंखों की पुतलियां सिकोड़ता है
साथ-साथ के रास्ते पर
एक-दूसरे से उल्टा चलना
पुरानी गांठों की मजबूती है
जिनके दाग कहीं और होते हैं
घाव को छूती उंगलियां
नमक में घुल जाती हैं
ओस की बूंदों में भीगीं फाहों जैसी
काश! मैं होती
कि जलन कि हर दाह में
उसके सीने से लगकर
थाह पाती।