गुदगुदी / अर्चना कुमारी

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प्रेम के पेट में
पांव से गुदगुदी करने पर
देह में भरती है झुरझुरी

आत्मा भरकर झुनझुनी से
झटकती है जकडऩ भरे सवाल
प्यास और भूख की

होंठ का सूखापन जीभ भिगोती है
आंखों की सफेदी लाल होकर
तपाकर खोलती है बंधन रोम-रोम के

अवश हाथ गर्दनों तक जाकर
देह पर देह झुकाते हैं
गाल गुदगुदाते हैं

रुह का अनछुआपन
देह की छुअन से परे
टोहता है
अपने हिस्से की ऊंगलियां
गुदगुदाहट वाली

प्रेम को दिखती हैं
सरसराती फिसलती ऊंगलियां
वह पांव समेटकर
रुह के तल पर ढूंढती हैं
निशान नर्म कोमल ऊष्ण स्पर्श के।

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