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साईकिल का रास्ता / नीलेश रघुवंशी

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साइकिल चलाते हुए
ज़मीन पर रहते हुए भी
ज़मीन से ऊपर उठी मैं।
अन्धे मोड़ को काटा ऐसे कि
रास्ता काटती बिल्ली भी रुक गई दम साधकर
ढलान से ऐसे उतरी
समूची दुनिया को छोड़ रही हूँ जैसे पीछे
चढ़ाई पर ऐसे चढ़ी कि
पहाड़ों को पारकर पहुँचना है सपनों के टीलों तक।
साइकिल चलाते ही जाना
कितनी जल्दी पीछे छूट जाता है शहर
शहर को पार करते हुए जाना
नदी न होती तो
शहर की साँसें जाने कब की उखड़ गईं होतीं
पहला पहिया न होता तो
कुछ करने की जीतने की ज़िद न होती।

खड़ी हूँ आज
उसी सड़क पर बगल में साईकिल दबाए
पैदल चलते लोगों को देख
घबरा जाती हैं अब सड़कें
रास्ता काटने से पहले दस बार सोचती हैं बिल्लियाँ
गाय और कुत्ते भी पहले की तरह
नहीं बैठते अब सड़क के बीचों-बीच
देखा नहीं आज तक
सड़क पर किसी बन्दर को घायल अवस्था में
मृत्यु का आभास होते ही
पेड़ की खोह में चले जाते हैं वे
क्या साईकिल चलाते और पैदल चलते लोग भी
चले जाएँगे ऐसी ही किसी खोह में
रौंप दी जाएगी क्या
साईकिल भी किसी स्मृति वन में।
साईकिल में जंग भी नहीं लगी और
रास्ते पथरीले हुए बिना ख़त्म हो गए
फिर भी भोर के सपने की तरह

दिख ही जाती है सड़क पर साईकिल।