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साँझ की देहरी पे जलाया दिया / कल्पना 'मनोरमा'

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साँझ की देहरी पे जलाया दिया।
क्या हुआ,आँधियों को न भाया दिया।

था अँधेरा बहुत नेह घटता गया
बेबसी पर बहुत कसमसाया दिया।

दर्द में हम पिरोते रहे जिन्दगी ‘
देखकर ये शगल मुस्कुराया दिया।

आइना जब छिपाने लगा झूठ को ,
भर गया क्रोध से,तमतमाया दिया।

ख़्वाब थे अनगिनत टूटने के लिए,
मूंद कर आँख कुछ बुदबुदाया दिया।

फैलते हाथ जब रोशिनी के लिए,
लाज से भींगकर फड़फड़ाया दिया।

कैद से रोशनी को छुड़ाने की जिद,
‘कल्प’ की बात सुन जगमगाया दिया।