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जुगिनी रानी / कल्पना 'मनोरमा'

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क्रुद्ध निहाई से चिंगारी,
छूट रही है
जुगिनी रानी जीवन लोहा
कूट रही है।

नेह छिपा कर रख लेती, गाड़ी के नीचे
दुलराती किलकारी अपनी, आँखें मींचे
करती घन से वार बनाती, मुदरी छल्ला
गठी –गठी काया तर, चिपका गीला पल्ला
खिले–खिले मुखड़े से
लाली फूट रही है।

संकल्पों को बाँध गाँठ में, आग जलाती
सपने कूट –कूटकर फिर, तलवार बनाती
घास काटती दुक्खों की, धीरे मुस्काती
पूरे कुनवे का बोझा वह, स्वयं उठाती
चपल निगाहों से वह
खुशियाँ लूट रही है।

दृष्टिकोण दिन से ले-लेकर, साँझ सजाती
निष्ठाओं की पायल से, झंकार लगाती
चाम धौकनी धौंक, उगाती विरल उजाले
और उगाती जीने के ,औजार निराले
अकड़ मुश्किलों की
किरचों में टूट रही है।