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केरल-प्रवास : तीन / कुबेरदत्त

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कैण्टीन के भीतर से आती
ख़ुशबू ने मुझे लुभाया...
कैण्टीन के भीतर जाकर
सांबर के संग चावल खाया
ऊपर से एक
छोटा पापड़
चरड़-चरड़-चड़ खूब चबाया
              कूट्ट भी खाया
            कद्दू का कुछ...
चार ओक पी रसम चरपरी
छाछ पिया फिर तीन कटोरी।
भूलभाल कर
दिल्ली, हिन्दी
भूलभाल कर
शर्ट-पैण्ट, अँग्रेज़ी की दुम
मैंने भी लुंगी डाटी थी
तबियत खासी खाँटी थी।

चलन हुआ रंगीला मेरा
चाल हो गई गबरू मेरी
मुझे देखकर
कैंटीन का पतला-सा वह
ख़ुशदिल बैरा
फरर-फरर हँसता जाता था
मानो कहता हो वह मुझको —
‘दिल्ली वाले के बस का यह
इमली रोज़ पचाना
यूँ आसान नहीं जी
          मुश्किल है जी।

एक साल कम से कम रह लो
थोड़ी-सी मलयालम सीखो
थोड़ा-सा कर्नाटक म्यूजिक
केरल कला मण्डलम जाकर
थोड़ी सीखो कला-कथकली
नम्बूदरियों से भिड़ने का कौशल सीखो
थोड़ा सीखो हाथ चलाना, पैर चलाना
थोड़ा सीखो नाव चलाना
कई-कई दिन
घरवालों से दूर
समंदर के जबड़ों में
      रहना सीखो।

मच्छी पकड़ो
कच्छी पहनो
पैण्ट-शर्ट को अलमारी की भेंट चढ़ाओ...
नारिकेल के
ऊँचे-ऊँचे शहतीरों पर
सरपट-सरपट चढ़ना सीखो।
केरल की जनता के संग-संग
जीना सीखो, मरना सीखो,
ताप, घाम, बारिश-थपेड़ को
सिर-माथे पर धरना सीखो।
धारा के विरुद्ध तैरो तो
                 बात बनेगी
           इमली तभी पचेगी।

वरना श्रीमन्
नारिकेल की चटनी खाकर
केले के पत्तों पर थोड़ी
              उपमा लेकर
              अप्पम लेकर
लेकर थोड़ा
पान-सुपारी,
ताड़ी की कुछ
लाल खुमारी
हरियाली का
चुम्बन लेकर
लौटो अपनी दिल्ली वापस
पहनो अपनी पैण्ट महाशय
पकड़ो अपनी ट्रेन महाशय
केरल को
केरल रहने दो।’