Last modified on 19 जून 2008, at 18:30

अलिफ की खुदकुशी / कुमार पाशी

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:30, 19 जून 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार पाशी }} जलती बुझती रोशनियों में साया साया जलता थ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जलती बुझती रोशनियों में साया साया जलता था
सारा कमरा व्हिस्की और सिगरेट की बू में डूबा था
उबल रह था ज़हर रगों में, मौत का नशा छाया था
सारा मंज़र नुकता नुकता, मुहमल मुहमल सा लगता था
शायद कुछ दिन पहले तक यह कोई भूत बसेरा था

'अलिफ' निहत्था...'जीम' निहत्थी...सारे बे-हथियार
अपने मुल्क और अपनी कौम के मुर्दा पहरेदार

'जीम' ने सारे रंग उतारे
और कहकहा मार के गरजी
है कोई दावेदार
सारे जाम उठा कर चीखे, तेरे एक हज़ार!
'जीम' अंधेरों से बाहर आयी, किया अलिफ पर वार
बाप तेरा मकरूज़ था, मेरा कर्ज़ उतार

आर-पार सब साए गुम, भूत बने दरवाज़े
प्रेत आत्माओं की सूरत खडी हुई दीवारें
गहरी--अपार खामोशी--गहरी अथाह अपार
बे-आवाज़ अँधेरे बरसे, बरसे मूसलाधार
बिजली बन कर कौंध रहे थे यही शब्द, 'बाप तेरा मकरूज़ था मेरा'

एक अनोखी खबर छपी है शहर के सब अखबारों में
सब दुकानें बंद पडी हैं कोई नहीं बाजारों में
साएं साएं लू चलती है, मिटटी मिटटी मौसम है
आज अलिफ के जल मरने पर दुनिया भर में मातम है

जलती बुझती रोशनियों में साया साया जलता है
उबल रह है ज़हर रगों में मौत का नशा छाया है
सारा मन्ज़र नुकता नुकता मोहमल मोहमल लगता है
एलिपेना सच कहता था; यह कोई भूत बसेरा है