Last modified on 5 अक्टूबर 2017, at 18:32

मेरा अंधा इतिहास / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:32, 5 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनिरुद्ध प्रसाद विमल |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आसमान पर आधा बांस
सूरज के ऊपर आ जाने के बाद भी
मैं उठ नहीं पाता हूँ
अपने बिछावन से
रोज-रोज की तरह आज भी
तन मन का विरोध
मेरी कोशिश के विरूद्ध
-जारी है

मैं बिछावन में
और भी धँसता जा रहा हूँ
राधेय रथ के चक्र सा
मुझे लगता है-
मैं दीवार में धंसी कील हूँ
हिलने डुलने में भी असमर्थ

मैं खाट से ही
देखता हूँ
-पनहाती हुई गायें
-खेत को तैयार बैलें

मैं स्पश्ट सुन रहा हूँ
रह रह कर बर्तनों की झनझनाहट
(जिन्हें अभाव के कारण
गुस्से में मेरी पत्नी पटक रही होगी)
मैं अपनी आँखें बंद कर लेता हूँ
और
-पत्नी का बच्चों पर बरसना
-बच्चों का रोना
-गायों का रंभाना
-बैलों का डकरना
सब के सब
मेरी बंद आंखों में घूमने लगते है
और मुझे लगता है
ये सब मुझे बुला रहे हैं
कोल्हू के बैल की तरह
-जुतने के लिये

घबराहट में
मैं अपनी आंखें खोल लेता हूँ
देखता हूँ -
आसमान का सूरज
बीचोबीच दरक गया है
जिससे काला धुआँ निकल रहा है
लगातार
मेरी आँखों में
अंधेरा करता हुआ