अश्विनी
खेत की मेढ़ पर बैठा
सोचता है
आखिर उसकी जिंदगी को
कबतक पड़ाव बनाये रखेंगे
ये बड़े-बड़े ‘मोटे लोग’
उसका मन डूबने लगता है
आस पास अँधेरा ही अँधेरा है
और अँधेरे में खड़े
दूर पास के पेड़
छोटे-बड़े दैत्यों की तरह
भयावह लगते हैं
कि सहसा
आकाश के पूरब में
हलकी चाँदनी फैलाता
द्वितीया का चाँद निकल आता है
कवि का अंतरंग मित्र
अश्विनी
गोल कटे चाँद को देखता है
देखता ही रहता है
उसके चेहरे का रंग
अब बदलने लगा है
वह हाथ में पड़ी
अपनी कचिया को देखता है
वह सोचता है
क्या उसकी कचिया की धार
इस चाँद की तरह
नहीं हो सकती
सहसा उसकी मुट्ठी में पड़ी मूठ
पहले से ज्यादा कस जाती है
और कचिये की नोक
दूसरे हाथ की चुटकी में
अब वह
सूखे खेत की मेढ़ पर रखी शिला पर
अपनी कचिया को
तेज-तेज चलाने लगा है
इसमें भी
द्वितीया के चाँद की चमक
और धार देने के लिये