भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खुद से ही डरती थी वो / निधि सक्सेना

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:05, 12 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निधि सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खुद से ही डरती थी वो
डरती थी अपने भीतर चल रहे संग्राम से
अपने भीतर चल रहे प्रतिशोध से
अपने भीतर के मौन से
अपने अभिमान से
अपनी उमंगो से
उसे ज्ञात था
जिस क्षण उसने ये डर त्याग दिया
उस क्षण उसके भीतर की अग्नि
हर भ्रान्ति को ध्वस्त करेगी

प्रेम और कर्तव्यों की समिधा में
ख़ुशी ख़ुशी स्वयं को होम करना है
यही उनींदी रातों की प्रतिज्ञा थी

इसलिए खुद को हराना
खुद से हारना
और फिर मुस्कुराना
यही शगल था उसका.