Last modified on 13 अक्टूबर 2017, at 09:38

मेरे मीत! / जया पाठक श्रीनिवासन

Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:38, 13 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जया पाठक श्रीनिवासन |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

(१)
तेरे-मेरे बीच कि दूरी को
यूँ पाटता क्यों है
रहने दे न इसे
यूँ ही -
कि अगर किनारे मिल गए
तो हमारे इश्क़ की नदी
कहाँ जायेगी बता!
 
 
(२)
तू मुझसे सूरज का वादा करना
मैं तझे धरती की तहें दूँगी
एक दरख़्त की छाँव
और शाखों पर चहचहाते बसेरे
बस!
इतनी दुआ और मांग लेंगे आसमानों से
 
 
(३)
दिन भर जेठ का सूरज
चिलचिलाया था मेरी पीठ पर
रात ख्वाबों में तेरी छाँव घनेरी
तय ठहरी
 
 
(४)
देख!
तू अलग सी तस्वीर बना रह
मेरे रुबरु
तेरे शोख रंगों को मेरी सादगी की क़सम
आईने तो पूरी दुनिया दिखाती है
मेरे मीत!