Last modified on 14 अक्टूबर 2017, at 16:09

प्रतिरोध की कविता / राकेश पाठक

Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:09, 14 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश पाठक |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

यह कविता नहीं है
यह नाटक भी नहीं है
यह कविता और नाटक के बीच झूल रही रौद्र बतकही है
इसमें पात्र तो है पर कोई अभिनेता नहीं.. और न हीं अभिनय

नाटक के पात्र की तरह
एक अदना सा,छोटा आदमी
प्रवेश कर
जब अभिनय की भंगिमा शुरू करता है.. तब हमसब हतप्रभ, भौचक्का हो चुपचाप तमाशा देखते हैं
कब यह तमाशा-किस्सागोई
सच्चाई के बेहद करीब
यथार्थ में ले जाता है
हमें पता ही नहीं चलता

लोग दिखते हैं
भीड़ भी दिखती है पर सब निहत्थे
किसी के हाथों में बंदूकें नहीं थी
न हीं खंजर
और न हीं नश्तर
जो डरा सके किसी को
वह दुश्मन की तरह लग रहे थे पर थे नहीं
उनके दुश्मन थे कई
सरकारें भी उनके खिलाफ थी
क्योंकि वो सरकार की बात नहीं करते थे
गण के उस हाशिये के हिस्से की बात करते थे
जहाँ सरकार नहीं पहुँच रही थी

जंग में सारी आताताई सेना झोंक दी थी सरकार ने उनके खिलाफ
पुरे खलुस और मरहूद के साथ

उस निहत्थे मानुषों के विरुद्ध
सरकार ने तलवारें तान रखी थी
मिसाइलों का मुख भी उसकी ओर था
समस्त राजशाही की ताकत उनके खिलाफ खड़ी थी
पर वे डिगे नहीं
और न हीं हारे--
और न हीं टूटे !

उनकी आवाज में इतनी असीम ताकत थी
कि पुरा गण खड़ा था उनके साथ
निहत्था ही !
उस आतातायी, तानाशाही सत्ता के खिलाफ
जो विरोधियों को कुचलने में मार्क्सवादियों से भी क्रूर थी
हवा में उठे हरेक हाथ को काट दिया करता था वो
उस क्रूर आतातायियों के कानों ने हमेशा सुने थे
जयकारों की आवाज़
चाटुकारों की आवाज़
लोलुपकारों की आवाज़
व्यापारों की आवाज़

पर
आज उस निहत्थे के आवाज के खिलाफ
सेना चुप थी गण बोल रहा था
राजा चुप था प्रजा बोल रही थी
मंत्री चुप थे परिषद बोल रही थी

उन निहत्थों की आवाज में
इंकलाब था उस देश की
जहाँ बन्दूकें बोल रही थी जनाब !