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कितना यहाँ के लोगों में है / साग़र पालमपुरी
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कितना यहाँ के लोगों में है प्यार देखना
इन वादियों में आ के तो इक बार देखना
देते हैं किस क़दर ये दिलो—ओ—रूह को सुकून
खिड़की से चमकते हुए कोहसार देखना
बरसात खत्म हो गई लो धान पक गए
आया है फिर से ‘सैर’ का त्योहार देखना
हर रहगुज़र पे सुर्ख़ गुलाबों का है हुजूम
मेरे वतन के महकते गुलज़ार देखना
बजता है बावली पे गगरियों का जलतरंग
चंचल हवाएँ गाती हैं मल्हार देखना
सदियों पुराने चित्र ये कितने सजीव हैं
महलों के गिर चुके दर—ओ—दीवार देखना
रुत फागुनी है राहों में फिर खिल उठे गुलाब
मेलों में अप्सराओं के सिंगार देखना
ऐ काश! वो भी उतरें समन्दर में एक बार
आता है जिनको तट से ही मंझधार देखना
वो दोस्तों पे जान छिड़कता है किस तरह
‘साग़र’ को आ़ज़मा के मेरे यार देखना