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एक वो तेरी याद का लम्हा / साग़र पालमपुरी
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एक वो तेरी याद का लम्हा झोंका था पुरवाई का
टूट के नयनों से बरसा है सावन तेरी जुदाई का
तट ही से जो देख रहा है लहरों का उठना गिरना
उसको अन्दाज़ा ही क्या है सागर की गहराई का
कभी—आस की धू्प सुनहरी, मायूसी की धुंध कभी
लगता है जीवन हो जैसे ख़्वाब किसी सौदाई का
अंगारों के शहर में आकर मेरी बेहिस आँखों को
होता है एहसास कहाँ अब फूलों की राअनाई का
सुबहें निकलीं,शामें गुज़रीं, कितनी रातें बीत गईं
‘साग़र’! फिर भी चाट रहा है ज़ह्र हमें तन्हाई का