भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गाँव-गाँव में / ब्रजमोहन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:40, 16 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रजमोहन |संग्रह=दुख जोड़ेंगे हम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
गाँव-गाँव में फ़सल तैयार
खेतों की आँखें चार रे
होशियार हुए हैं घर-द्वार
डाकू हैं पहरेदार रे ...
आन्धी ने जब पेड़ गिराया, भागे मन से भूत सभी के
गाँवों के भूतों पर रोता, भूतों का वह पेड़ तभी से
गाँव का भूत है नम्बरदार ...
बर्फ़ीली रातों को देखो लपटें लड़ती शीत-लहर से
चिमनी के मुँह खोल के निकले हैं लाखों घर-बार शहर से
दिल-दिल में सुलगते अंगार ...
सेनाओं की भर-भर गाड़ी, धूल उड़ाती आती देखो
दिल्ली की कुर्सी गाँधी की लाठी आज घुमाती देखो
कैसी भागी फिरे है सरकार ...
जन्म-जन्म का फेर छोड़कर इसी जन्म की बात उठी है
कल तक जो भी पाँव तले थे अब उनकी ही लात उठी है
कमेरे हाथ हुए हैं हथियार ...