Last modified on 16 अक्टूबर 2017, at 20:49

बूढ़ी माँ का गीत / ब्रजमोहन

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:49, 16 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रजमोहन |संग्रह=दुख जोड़ेंगे हम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ज्यों-ज्यों बूढ़ी होती जाती माँ बेचारी
दो रोटी पड़ती जाती हैं सबपे भारी ...

कुत्ते के आगे रोटी फेंकी जाती है
पर बूढ़ी काया न इक पल भी भाती है
हाय बुढ़ापा ! जीवन की कैसी लाचारी ...

ख़ुद गीले में सोकर सबको सुख पहुँचाया
सुख देखो ये कैसे-कैसे दुख ले आया
कैसी दुनिया है ये कैसी दुनियादारी ...

खिला-पिलाकर बड़ा किया रे सबको पाला
अब हँसता जीवन के ऊपर घर का ताला
रिश्तों के मरने की यह कैसी बीमारी ...

अपना कहने को अब अपना तन बाक़ी है
तन के भीतर जीवित है जो मन बाक़ी है
मन के भीतर मरी हुई है दुनिया सारी ...