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मत पूछ रे मन की / ब्रजमोहन
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मत पूछ रे मन की हर बात भाई
ख़ुश हूँ मैं, शादी हुई गाँव आई ....
कहने को गाँव है सारा हमारा
बैलों को भी पर नहीं मिलता चारा
कर्ज़े की साँसों पर चलता गुज़ारा
बही लिखता साहू लहू - रोशनाई ...
सुबह मुँह अन्धेरे खेतों का रस्ता
फटे तम्बुओं में से स्कूल हँसता
सूखी हुई रोटियाँ और बस्ता
आँखों में दिये की लौ टिमटिमाई ...
नई एक धोती के दो टूक करके
बदन ढाँपते हैं सभी गाँव-भर के
मन में मरते हुए स्वप्न घर के
बन करके गूँगी खड़ी है सच्चाई ...
किताबों में पढ़ते थे गाँव का भारत
फ़सलों की हरियाली छाँव का भारत
मुझको तो लगे बस चुनाव का भारत
है झूठी किताबों की नक़ली पढ़ाई ...