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साहित्य की स-हत्या / सुरेश चंद्रा

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साहित्य स्तब्ध था

शब्द उल्टी साँस चल रहे थे
कविता मरणासन्न थी
आलेख कराहते थे

स्वयंभू कलम ने
पैने गड़ा दिये थे
दायित्वहीन दंत-दंश
आगत पीढ़ी के सुवाच्य इतिहास में

दर्शन, विचार, सुधार, प्रसार-पताका अधीन
अधजल गागर में तिरते, आत्म-मुग्ध थे

सभ्यता, समाज, व्यवस्था, आंदोलन, अनाज
सूप से चाल रहे थे, सूत्र, साध, संविधान, संसद, आवाज़

संवेदना, सहानुभूति, भर्त्स्ना, भावुकता
कुटिल कातती थी शोषण, त्रासदी, भूख और नग्नता

शाब्दिक तर्क-वितर्क केवल समूह में सज्जित था
आविष्कृत धर्म ईश्वर के समक्ष निर्लज्ज सा लज्जित था

चटख़ारे लेता था धिक्कार लिखता मानवाधिकार
सस्ता, और सस्ता बाज़ार हो चला था- शब्द-संसार

कवि, दार्शनिक, विचारक, सुधारक
सब थे प्रलय की ओर प्रतिकारक, मारक

और निश्चित ही ये समय की अपदस्थता
और संकीर्णता से, थक कर उपजी, कृत्या थी
नागरिक-शास्त्र के भ्रामिक संशोधन में
साहित्य की स-हत्या थी !