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फिर से मृत्यु पर/ नाज़िम हिक़मत

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मेरी पत्नी,
जान मेरी ज़िंदगी की,
मेरी पिराए,
मैं सोच रहा हूँ मौत के बारे में,
यानी मेरी धमनियां
सख्त हो रही हैं...
किसी दिन
जब बर्फ पड़ रही होगी,
या किसी रात
या
किसी गर्म दोपहर में,
हममें से कौन पहले मरेगा,
कैसे
और कहाँ ?
कैसे
और कौन सी होगी
वह आखिरी आवाज़ जो वह मरने वाला सुनेगा,
कौन सा आखिरी रंग देखेगा वह,
यहाँ पीछे छूट जाने वाले की पहली हरकत क्या होगी,
पहला लफ्ज़,
पहला आहार ?
क्या पता हम मरें एक-दूसरे से काफी दूर.
खबर
चीखती हुई आएगी,
या बस इशारा करके चला जाएगा कोई
यहाँ पीछे छूट गए को अकेला छोड़कर...
और पीछे छूट गया वह अकेला
गुम हो जाएगा भीड़ में.
मेरा मतलब है, यही ज़िंदगी है...
और यही सारी संभावनाएं,
1900 के कौन से साल,
किस महीने,
किस दिन,
किस वक़्त ?

मेरी पत्नी,
जान मेरी ज़िंदगी की,
मेरी पिराए,
मैं सोच रहा हूँ मौत के बारे में,
अपनी जिंदगियों के बीतते जाने के बारे में.
मैं उदास हूँ,
शांत,
और गौरवान्वित.
जो भी पहले मरता है,
चाहे जैसे
और चाहे जहाँ,
मैं और तुम
कह सकते हैं कि
हमने प्रेम किया एक-दूजे से
और प्रेम किया जनता के महानतम उद्देश्य से
-- हम लड़े इसके लिए --
हम कह सकते हैं
कि हम ज़िंदा रहे सचमुच.

अनुवाद : मनोज पटेल