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और मैं तुम्हें तब मिला / सुरेश चंद्रा

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और मैं तुम्हें तब मिला

जब तुम लिखी जा चुकी थी
अनगिनत बार
आत्मा के छल-छाल रक्त से
देह की शैली पर आकर्षण सतत

सदियों जी चुकी थी
आकस्मिक प्रेम की विपन्नतायेँ
आकंठ डूबी, धधकती विडम्बनाएँ
तनती हुई, घवाहिल अपेक्षाएं, आकांक्षाएं

और तुम मुझे तब मिली

जब मैं पढ़ा जा चुका था
हताश हस्ताक्षरित
संबंधों के कई अनुबंधों में उपस्थित
आखर-आखर सा, विकर्षण परत

जिलाता हुआ खुद में
आहत दर्प, उच्श्रृंखलताएँ
दहकाता हुआ अभिशप्त ज्वालाएं
अनुराग के अनु तक पनपाता आशंकाएं

ये जानते हुए भी हम
कि अनेक अभिसारों से बीतते हुए
हम दोनों ही थे एक दूसरे को
अनुकूल, अनुरूप, अविरुद्ध, अंततः

तुम समझो निमित्त
मैं मान लूं निहित

अतीत शूल, वर्तमान कसैला, विषैला
द्वंद दूर, भविष्य की दृष्टि में फैला

न तुम में आद्र मर्म अब
न मुझमें कातर संवेदनाएं
काल के क्रूर पन्नों पर
भाग्य रचता है, पृथक प्रथाएं

जन्म लिया था केवल, एक दूसरे के लिये
पर, अंतिम एक हम, लिपिबद्ध वर्जनाएं !