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युगन युगन हम योगी / जया पाठक श्रीनिवासन

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रुपहली नदी मैं
जमी हुयी अविचल
पर्वत ! तुम्हारी योग निद्रा टूटी
तुम माथे पर सूरज की ताप लिए
जगाने लगे मुझे
मैं बूँद बूँद पिघलने लगी

नीली नदी मैं
पर्वत मेरे !
तुमने धकेल दिया मुझे
खुद से दूर
मैंने जानी अपनी गति
अपना बौराया हुआ राग
खोजने निकली उद्देध्य
तुम्हारे अचानक उपजे वैराग्य का

सुनहली नदी मैं
आसमान सी विस्तृत
बहती हूँ सभ्यताओं के बीच से
जलती बुझती माणिकर्णिकायें
मेरी लहरों की ध्वनि प्रतिध्वनि में
पूछती बैकुंठ का मार्ग
उनकी ख़ातिर
वैतरिणी तलाशती मैं
चल पड़ती आगे अनंत की ओर

सांवली नदी मैं
अनंत में जैसे - संज्ञाहीन
जाने किस सम्मोहन में है
मेरा रोम रोम
कि अदृश्य वाष्प सी उठती है देह
उमड़ती घनघोर
और यह क्या !
जाकर ढुलक जाती फिर
अपने योगी पर्वत के कन्धों पर

मेरे प्रेम ,
राग विराग के इस क्रम में
मैं नदी
और तुम पर्वत
कितने युग
सोते जागते
चलते रहे हैं
साथ साथ
तुम्हे ज्ञात है?