भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरी धूप / जया पाठक श्रीनिवासन
Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:57, 21 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जया पाठक श्रीनिवासन |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
वह धूप
भोर में
उतरती है
धीमे से
उसके पैरों में
चाँदी की पाजेब
छनकती जाती है
हर ओर
उसकी चाल के साथ
मेरी कायनात चलती है
छम-छम
वह धूप हँसती है
जब पुचकारूं उसे
और जब गले लगा लूं
तो चीख पड़ती है
ख़ुशी के मारे
कभी वह धूप
जवान होगी
तो मेरी पीठ जलाएगी
उसे किसी और के आँगन में रख आना होगा
फिर वह धूप
दिनभर आँगन बुहारते
नए सूरज बोते
उस "किसी और" के आँगन में ढल जाएगी
मैं देखूंगा
यूँ ढलते उसे
अपनी मुंडेर पर
आस की कोहनी टिकाये
नम आँखों से