हफ़्तों मेज पर बिताने के बाद
आखिर निकल पड़ता हूँ टहलते हुए.
छिप गया है चंद्रमा, पैरों के नीचे मुलायम मिट्टी जुते हुए खेत की
न तो सितारे न ही रोशनी का कोई सुराग !
सोचो इस खुले मैदान में अगर कोई घोड़ा
सरपट दौड़ता आ रहा होता मेरी तरफ ?
वे सारे दिन बेकार गए
जो मैनें नहीं बिताए एकांत में.
अनुवाद : मनोज पटेल