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समर्पण / साँवरी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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प्रियतम
बहुत इच्छा है
चाहती हूँ
साँझ होने से पहले
तुम्हारी इच्छा की वह साँझ
तुम्हें दे दूँ।

आओ मेरे प्रियतम
मेरे साँवले रूप के प्यासे
और समेट लो मुझे
अपनी मजबूत बाँहों में
हाँ, हाँ, बाँध लो मुझे
हमेशा-हमेशा के लिए
अपनी मजबूत बाँहों के पाश में।

बड़ी तेज चल रही हैं मेरी साँसे
तुम्हारी साँसों से मिल जाने के लिए
देह से देह
मन से मन
बज उठे प्राणों के तार-तार।

फन काढ़ते
काले नाग की तरह
हवा से खेलते
मेरे काले केश गुच्छ
खुल कर बिखर जाना चाहते हैं
कि समेट लेना चाहते हैं
तुम्हें ठीक-ठीक
सम्पूर्ण रूप से अपने अन्दर।

प्राण !
आज मैं मेघ बूंद बनकर
धरती सी तुम्हारी देह में
अपने को समा देना चाहती हूँ
धूल और पानी की तरह।

आओ
मेरे नाम के बावले
मेरे मीत
मेरे अधमुँदे-अलसाये
पलकों का फड़कना
अग्नि की तरह दहकते अधरों के संकेत
इन्हें समझो पिया
पगला गई हूँ मैं
बौरा गई हूँ मैं
देखो चारों ओर
प्रकृति के भी अंग-अंग सिहर रहे हैं
कि मेरे ही समर्पण भाव से
भर उठी है।

देखो इस मेघ को प्रियतम
कितना तो बौरा गया है यह
कि दौड़ने लगा है
आकाश की छाती पर
कमरूप शिव की तरह
तांडव नृत्य की मुद्रा में
हिमालय के बेटी की तपस्या को
फिर से पूरा करने के लिए
उसकी देह से
लिपट जाने के लिए
धरती पर बरस जाने के लिए
उसकी प्यास बुझा देने के लिए।

और ऐसे में
भला तुम्हीं कहो
मुझे तुम्हारी याद क्यों नहीं आए।

उधर देखो
बरसाती नासमझ हवा के झटके खाकर
किस तरह लचकने लगी हैं
वृक्ष की डालें
एक दूसरे के गले से
मिलने के लिए उतावली।
ऐसे में
मेरी सोई इच्छाओं का
अचानक ही जग जाना
क्या स्वाभाविक नहीं है मेरे मीत ?

आज तुम्हें
आना ही पड़ेगा
आज तुम्हारी छाती पर
अपने सर को टिका कर
मैं सो जाना चाहती हूँ
तब तक के लिए
जब तक कि
तुम्हारे आलिंगन की कठोरता
मेरी शिथिलता को
तोड़ कर जगा नहीं देती है।

मीत मेरे
मुझे कस कर बांधो
कि मेरे रोम-रोम बज उठे हैं
बाँस-वन के संगीत की तरह
चंदन की डाल पर
कुंडली मारकर बैठे साँप की तरह
स्वर्ग के पारिजात पुष्प की तरह
मेरी यह देह
न जाने कौन से अनचिन्हे
स्वर्गिक छुवन से
बेसुध हुई जा रही है।

आओ, देखो प्रियतम
जेठ की यह तपती धरती
आकाश से रिमझिम बरसती
बूदों की फुहार पाकर
कितनी शांत हो गई है।
अब हवा की भी
सिहरा देने वाला यह स्पर्श
नहीं सहा जाता है मुझसे।

मेरे मीत
अभी-अभी हवा ने
लाज से हुई लाल टुभुक
हो गये मेरे अधरों को
चूम लिया
आखिर क्यों नहीं
यह हवा
तुम्हारे घर की दिशा से
चल कर जो आती है।

आज फिर एक बार
बीते वर्ष की तरह
नदी की उफनाई गति सी
उमड़ती धार में
कूद जाना चाहती हूँ
उस पार जाने के लिए
पा लेना चाहती हूँ
उसी सुख को
जो मिला था मुझे
नदी में घुस कर।

सच कहती हूँ मेरे मीत
तुम से मिलने की बेसुधी में
मैं जैसे ही नदी में कूदी
तो मुझे लगा
मैं पानी में नहीं
बल्कि तुम्हारी सुखकारी
मजबूत बाँहों में समा गई हूँ

और नदी की धारा ने
मुझे उसी तरह उठा लिया था
जैसा कि
तुमने उठा लिया था मुझे
समेट कर अपनी बाँहों में ।