भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अभी हज़ार जंग बाक़ी है / ब्रजमोहन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:56, 23 अक्टूबर 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अभी हज़ार जंग बाक़ी हैं, बाक़ी हैं हज़ारों इन्क़लाब
अभी तो आँखें ही पढ़ रही हैं ज़िन्दगी की किताब

अभी तो जीवन की साँस पीती
हुई मशीनें ईज़ाद होंगी
अभी तो सपनों की बस्तियाँ
ये नींद में ही तबाह होंगी
अभी तो जोंकों के ख़ून का भी हुआ नहीं है हिसाब

अभी तो जालिम का सर तना है
अभी तो लोहा पिघल रहा है
धुआँ-धुआँ इन चिमनियों में
मजूर का जीवन गल रहा है
अभी सवालों की भीड़ में ही खोया हुआ है जवाब

अभी तो धर्मों की मौत होगी
अभी तो भाषा का दिल जलेगा
अभी तो जाति की लूट में ही
अन्धेरा होगा ये दिन ढलेगा
अभी तो रातों की साज़िशों को सुन रहा है आफ़ताब

अभी तो रस्तों के धोखे होंगे
अभी तो पाँव चलेंगे उलटे
अभी अन्धेरों के ही भरम में
हज़ार सूरज जलेंगे उलटे
अभी तो टूटेगा सौ दफ़ा ही क़ातिलों का रुआब