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अंतिम निराशा / साँवरी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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आज कितने ही दिनों से साँवरी
सेज पर क्षण-क्षण
चित्त-पट्ट होती हुई
हाथ-गोड़ उसी तरह फेंक रही है
जैसे कि
चन्दन नदी के किनारे पर
फेंकी हुई बुआरी मछली
ठीक वैसे ही
साँवरी कुँआरी।

घन्टे-घन्टे पर
थोड़ा-थोड़ा आँखें खोलती है
रह-रह कर क्या-क्या
अनर्गल-सी बोलती है।
‘‘देखो तो भाभी
कागा क्या संदेश उचारता है
उड़ गया, उड़ गया
पिंजड़े का सुआ रे,
मैं ही तो कागा रे,
मुझे ही दो दूध-भात

भाभी
उड़ा दो मुझे
बिठा दो छप्पर पर
देखो-देखो
लौट आया सुआ रे
.....................
मेरा ही पाला हुआ
पोखर पर पुकारता है कागा’
इसी तरह प्रलापती है
दिन में ही नहीं
रात में भी
नींद में ही नहीं
जागी हो, तब भी
बोलती है
‘‘घर-द्वार
टोला-पड़ोस सब जगह
कागा का वास हैै।

करता है-काँव-काँव
काँव-काँव
भाभी किधर जाऊँ
आँखों का हंस जाकर
अँचरे में गिरा
दौड़ कर गई शिवालय तक
देखती हूँ
शिव के स्थान पर
कागा ही बैठा है
तब तो फिर कागा की ही
सीमर पूजा न हुई !’’

प्रलापती है ऐसे ही
आती है होश जैसे ही
माता-पिता रोते हैं
आँगन-ओसरे पर
क्या हुआ बेटी को
जाने किस ओझा
और डायन की है ये करतूत।

भाभी सहलाती है
सर से ले पाँव तक
फिर भी तो साँवरी को
लगती है दाँती
दाँती पर दाँती
द्वार पर चिन्ता में
भाई-बाबा जागते हैं।

और कोई सखी अगर पूछती है
तो कहती है
‘‘जैसे हुई बीजूवन में
कागा का बोल
दौड़ी
की रात कहीं बीते न
पकड़ने को चाँद
कि चाँद को डूबने न दूँगी

कल सुबह तक भी
बीजूवन में बोला था कागा
सखी, तोड़ दूँगी मैं
सोने की उसकी चोंच
बोलता है कि
हँसना और गाल फुलाना
साथ-साथ नहीं होता है।

सखी, कागा का बोल तो
मधु-सा ही चूता है
न तोडूँगी उसकी चोंच’’

और यह कह-कह कर
साँवरी फुलाती है गालों को
हँसती है पगली-सी
भाभी के गले से लिपट कर
और कहती है
‘‘देखो रे कागा
दोनों ही साथ-साथ
मैंने यह किया कि नहीं
झूठ हुआ या कि नहीं
तुम्हारा वह बोल
नीम की डाली पर बैठ
क्या चोंच को पिजयाते हो।’’

साँवरी की हालत यह देख
चाची की आँखों से
छूटते हैं आँसू
भींगे ही रहते हैं
आँचल के छोर
रोते ही होता है भोर
पूछती है कुछ भी जो
तो साँवरी बोलती है कुछ और
‘रूई भरे बोरे-सी ......
मुलायम चन्दन नदी की रेतों पर
जुटा है हँसनियों का महारास

सबसे ही मिल-जुल कर
नाचता है कागा
तुम्हीं कहो काकी
किसका सराहने लायक है भाग्य
लेकिन एक हंसनी
सिंगार किए रोती है
चन्दन नदी के एक कोने में।’’

कि तब ही
चिल्ला उठी सांवरी
‘‘ओ री माँ
दौड़-दौड़
देखो, जेठोर का पहाड़ बन कागा
उड़ता ही आता है
नोचने को मुझको
बचाओ अय भाभी ।’’

भाभी और माँ
आँखें फाड़ देखती है साँवरी को
पूछती है
‘क्या हो गया है तुम्हें’
तो आँखों पर हाथ रखे
बोलती है साँवरी
‘‘मेरी आँखों में
बैठा है कागा

झूठ नहीं बोलती हूँ
मैं नहीं गई थी
चन्दन-कछार पर
इसी ने डाका भर जेठ में
मुझको बुलाया था
चैत में इसी ने तो
मुझको दौड़या था
खेतों में
बहियार में
और फिर सावन में
बन कर के श्याम-श्याम मेघ।

सुनों माँ
कहता था
‘‘ऋतु-ऋतु में धूमने से
यह मन बहलता है।’’
लेकिन माँ
मैं तो हूँ ठीक ही
सुनो-सुनो भाभी
मेरे इन केशों के नीचे
छिप कर के बैठा है कागा
बोलता है
‘‘यही चाह, यही तड़प
उधर भी है।
पर किसमें भाभी ?’’
समझ नहीं पाती है माँ
ताकती है टुक-टुक
और भाभी मुँह सावरी का
लेकिन उस साँवरी को
बस एक ही तो रट है
‘‘सुनो माँ
कागा उचारता संदेश क्या ?

बोलता है
चन्दन के पार
उस पीपल के वृक्ष पर
योगी एक आया है
देने को मुझको आशीष
चलो, ले चलो मुझको।

सुनो अय भाभी
अभी तो मैं
ठेहुने भर पानी में
उतर भी न पाई हूँ
देखो, वह कागा है बहता
बहने दो ।’’

अय दादी
देखो, वह देखो
काले उस मेघ में
काला वह कागा
किसकी पटोरी लिए
भागा वह आता है
काँव-काँव कर संदेश सुनाता है
देखो न दादी
वह अपने पैरों में
लिए हुए आता है
ईख के गोल-गोल गुल्ले
और टिकोले
किसके लिए।’’

बूढ़ी दादी बेचारी
आँखों से कमजोर
कनमुँही बैठी वह देखती है
आकाश की ओर डर से
कहीं तो कुछ भी नहीं
सिर्फ आकाश है
और है आकाश में
दपदप दमकता हुआ सूरज।

सेज पर साँवरी अकेली
रह-रह चमकती है
पूछती है बार-बार
भाभी से लिपट कर
‘‘जाड़े से ठिठुर रहा
बोलता है कागा क्या ?

भाभी
वर्षा रानी तो आखिर में मर गई
अब क्या देखने को आया है
आम्रपल्लव का मोर पहन
घोड़ी पर चढ़ कर के
हाँफता-हाँफता वसन्त।

पीपल के वृक्ष पर
टंगी है बिहौती पटोरी
खोड़ड़ में पड़ी हुई चूड़ियाँ
अय भाभी, देखो
राजा-सा कागा
क्या कानों में बोलता है
झरकाहा
मरता भी तो नहीं है।

देखो न भाभी !
चुनरी लिए वसन्त गया
घोड़ी पर चढ़कर
चन्दन नदी के उस पार
और कागा गया चूड़ियाँ ले
बीजूवन

काँव-काँव-काँव
ओ भाभी
कागा क्या बोलता है
बोलता है
चुनरी जब लाकर के दोगे
तब दूँगा तुमको ये चूड़ियाँ।

भाभी सुनो
सुबह से ही
यह कागा असगुनिया
बाबा की फुलबारी में बैठा
बोलता है
कितने तरीके से
मूँझरका यह
आदमी-सा बोलता है क्यों नहीं।’’
साँवरी अब
साँसों के तारों पर झूलती है
माँ
कितने ही देवों के द्वार पर
कर आई है कबूलती।

ओझा के कहने पर
पिंजड़े में बंद एक कौआ
साँवरी के सामने ही
चौखट से टंगा है
साँवरी का तन और मन संग
जीवन भी टूटा है
पचासों साल से रखी
पोसाखी साड़ी को जैसे
धोने में फाड़ कर रख दिया हो
धोबी ने
जिसको अब रखना भी मुश्किल
और फेंकना भी मुश्किल ।’’