भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मरीना-तट और वर्जनाएँ / रामनरेश पाठक
Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:41, 24 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामनरेश पाठक |अनुवादक= |संग्रह=मै...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मैं दिशाहारा अकम्पित.
सामने फैला हुआ है
मरीना का एक आँचल-खंड!
मत चुनो, ओ आसवी!
यह रेत, सीपी, शंख
रेत चन्दन नहीं है
उपलब्धियाँ सीपी नहीं हैं
शंख मंगलध्वनि नहीं उच्चारता है अब.
मत बनाओ तुम घरौंदे बालुका के
मत लिखो आँचल किनारे नाम प्रिय का
यह मरीना का अश्रु-भीगा एक आँचल-खंड.
मत चुनो यह धन
आँचल पर छितरते रेत, सीपी, शंख!
इसे पीड़ित मत करो तुम
घरौंदे का खेल, प्रिय का नाम, इसको रुला जायेंगे.
यह शेष आँचल-खंड
सागर-दैत्य जाएगा निगल.
मैं पिता ऋषिपुत्र
दिशाहारा, मंत्रहारा, सर्वहारा
क्या करूँगा तब ? क्या करूँगा ?
चलो,
चलो कुल को लौट