भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विसंगति / राकेश रवि
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:57, 2 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश रवि |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatAngika...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आपनोॅ घोॅर नै आबेॅ घोॅर लागै छै,
आदमी केॅ आदमी सें डोॅर लागै छै।
गोदी के बच्चा भुकार पारै छै,
पीठी सेॅ सटलोॅ रं छाती लागै छै।
चोसै लेॅ दूध केॅ ढूस मारै छै,
पर सुखला धरती पर की होॅर वहै छै।
लाजोॅ गरानी सें माय ही मरै छै,
आदमी सें आदमी केॅ डोॅर लागै खै।
हुनका कन हरदम हुलास रहै छै,
पर हमरो चुल्होॅ उपास रहै छै।
हुनी जे चाहै छै से-से सब खाय,
हमरोॅ सब धीया-पुता मुखलोॅ टौआय।
सद्दोखिन हमरोॅ पसीन बहाय छै,
हुनकोॅ देहोॅ केॅ तेॅ जोर लागै छै।
आदमी सें आदमी केॅ डोॅर लागै छै।
हमरोॅ देह में जे खून बहै छै
देखी केॅ हुनका यही घून लागै छै।
हुनका कारोॅ पर छै कुत्ता घूमै,
हमरोॅ देहोॅ पर छै जुत्ता घूमै।
बोलला पर हूनकोॅ मूँ ढोल बाजै छै।
आदमी केॅ आदमी सें डोॅर लागै छै।