भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
होती कितनी छोटी चींटी / महेश कटारे सुगम
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:50, 5 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश कटारे सुगम |अनुवादक= |संग्रह=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
होती कितनी छोटी चींटी
फिर भी दिन-भर करती पी० टी०
हरदम ही चलती रहती है
लेकिन कभी नहीं थकती है
आदत है इसकी अलबेली
नहीं निकलती कभी अकेली
झुण्ड बनाकर ये आती है
दीवारों पर चढ़ जाती है
मीठी-मीठी चीज़ें खाती
कभी किसी को नहीं सताती
लेकिन जब अपनी पर आती
हाथी को भी मार गिराती
होती कितनी छोटी चींटी...