भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पुतला / राजीव रंजन
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:13, 9 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजीव रंजन |अनुवादक= |संग्रह=पिघल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सज-धज कर पुतला अब
बाहर जाने को तैयार था।
बाहर के वातावरण में
हवा-पानी का मजा लेने।
शायद उसे अपनी सुन्दरता
के साथ दृढ़ता का गुमान था।
पर यह क्या हवा के मंद
झोकें में और पानी की चंद
फुहारों में ही उसका
चमकीला रंग धुलने लगा
और रंगीन कागज जो
सटे थे उस पर चमड़े की
परत बन, वे उखड़ने लगे।
देखते ही देखते अन्दर
की हड्डियाँ अब कागज की
लुगदियों सी गलने लगी।
जिसे दधीची की हड्डियों
सा बज्र होने का गुमान था,
उस पर बरसात की पहली
फुहार ने ही पानी फेर दिया।