भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बसंत का विद्रोह / राजीव रंजन

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:24, 9 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजीव रंजन |अनुवादक= |संग्रह=पिघल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किसने कहा तुझे
ऋतु-राज बनाने के लिए मुझे।
मेरे आते ही तुम्हें
प्रेम गीत गुनगुनाने के लिए
या प्रेम-माधुर्य रस से
स्निग्ध गीत जन-जन
के मन में चस्पाने के लिए।
चारों तरफ खिले लाल-लाल
फूलों को देखकर न जाने
कितने लालित्यपूर्ण गीत
रच डाले तुमने
क्या इन फूलों के पीछे
लाखों भौरों एवं तितलियों
के श्रम, त्याग, बलिदान
और तपस्या को देखा
या खुद इन फूलों के
बीज के दर्द को महसूस
किया, जो एक नया जीवन
देने के लिए अपने अस्तित्व
को मिटाकर दिन प्रतिदिन
श्रम करता रहा है और
यह फूल भी उसी श्रम
का एक पड़ाव है या
श्रम और बलिदान की
उत्कृश्ट कृति है।
इस समय धरती के
शस्य परिधान पर
न जाने कितने अलंकृत
गीत टाँके हैं मिलकर सभी,
लेकिन गेहूँ के लहलहाते
खेतों को या उसकी झूमती
बालियों को नजदीक से
जा कर देखा है कभी,
या उस शस्य परिधान
के अन्दर रिसते लाल
खून को जो बालियों में
लाल-लाल दाने बन
भरने के लिए निकल
रहा है, उसके दर्द को
महसूस किया है कभी।
सरसों के पीले फूलों पर
तो तुमने न जाने कितने
मन झुमाने वाले सुन्दर
गीत लिखे होगें और
उसकी गदरायी फल्लियों
पर भी तुमने खूब
कलम चलायी होगी
क्या कभी इन सरसों के
खेतों में उतर उनके पीले
फूलों की आँखों से झरते
आँसूओं को देखा है या
सदियों से सहते आए
दर्द से पीले पड़े रंग
के अन्दर झाँका है,
पेड़ों की हरी पत्तियाँ तो
तुम्हें नजर आती है, लेकिन
सुखी, बिछड़ी पत्तियों एवं डालियों
के लिए उनकी सिसकियों
को नजदीक से कभी सुना है।
हजारों मंजरियाँ अपना अस्तित्व
विलीन कर जो मधुर फल लाएगीं,
उसे पाने की लिप्सा छुपाने के लिए
तुमने अपने पाखंड से
उनके दर्द से बोझिल हवाओं
को ’मादक’ बना दिया और
उस दर्द से व्यथित कोयल
की हूक को प्यार का ’कूक’ बना दिया।
इस श्रम-ऋतु में प्रकृति
की श्रम-शक्ति की
उद्घोशणा के रूप में खिले
फूलों को और फैली इन
हरियाली को तुमने बड़ी ही
चतुराई से प्यार की सौगात
में बदल दिया और श्रम से
थक कर चूर हुयी प्रकृति
को सहलाने के लिए आयी
बसंती बयार को भी
प्यार का ‘दूती’ बना दिया।
अरे प्यार के भूतों!!
जनता हूँ मैं यह सब
प्यार की भलाई के लिए
नहीं कर रहे तुम, बल्कि
छल से श्रम को निःकृश्ट
साबित करने की यह
सदियों पुरानी तुम्हारी चेश्टा है।
तुमने श्रम-ऋतु को
अपनी कपोल-कल्पना के
रंग में रंग कर एवं प्रेम-माधुर्य
के रस में सराबोर कर
मधुमास बना दिया।
मैं नहीं मानता कि तुमने
अन्जाने में ऐसा किया होगा,
क्यों कि मैं तुम्हारे सदियों
पुराने इन कृत्यों को
भलिभाँति जानता हूँ एवं
तुम्हारे पाखंड एवं षड्यंत्र
को बखूबी पहचानता हूँ
प्रकृति के अभिनव श्रम
एवं बलिदान की कथा
मिटाने के क्षुद्र प्रयास
से वाकिफ हूँ।
मुझे पता है जिस दिन
धरती के अंग-अंग पर
बलिदान, खून और पसीने
की स्याही से लिखे हजारों
गीतों को गाने वाला गीतकार
एवं पढ़ने वाला कवि मिल
जाएगा उसी दिन तुम्हारे
इस पाखंड और षड्यंत्र
का पर्दाफाश हो जाएगा।