भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिग बाजार / राजीव रंजन

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:25, 9 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजीव रंजन |अनुवादक= |संग्रह=पिघल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज-कल छोटे-छोटे शहरों में भी
खुल गए है बड़े-बड़े बिग बाजार।
भावनाओं को भड़कने वाले
तड़क-तड़क भरे विज्ञापन
बने हैं आज उनके हथियार।
उच्च वर्ग को छोड़ अब
मध्यम, निम्न वर्ग को बनाया
है उन्होंने अपना नया शिकार।
बच्चों की नासमझी, उनकी
कोमल भावनाओं एवं
उनकी जिद को उन्होंने
बड़ी चालाकी से बना लिया
लूटने का नया हथियार।
मध्यम, निम्न वर्ग जो
पेट काटकर जमा करता था
आड़े वक्त काम आने को दो पैसे
उसे ही अपनी धूर्तता से नहीं लूटा
बल्कि बड़ी चालाकी से उन्हें
छोटी-छोटी गैर जरूरी जरूरतों
को पूरा करने के लिए
ई.एम.आई. एवं क्रेडिट कार्ड
का आदी बना दिया या
सीधे अर्थो में कहे तो कर्जखोर।
स्त्रियों का सौंदर्य के प्रति आकर्शण
एवं बच्चे की नासमझ जिद का
टेलीविजन एवं अन्य प्रचार-तत्रों
से खूब दोहन करते हैं।
जानते हुए भी कि जाल बिछा है
और ‘शिकारी’ आएगा, दाना डालेगा,
फँसना नही ‘कहते हुए मजबूरन
फँस रहा है आज इंसान।
अब डाकू चंबल की बीहड़ों में नहीं रहते
वे रात के अंधेरे में बंदूक की नोंक पर
अब नहीं लुटते।
बल्कि, वे शहर के बीचों-बीच रहते हैं
दिन के उजाले में ही लुटते हैं और
यदि लूटने के लिए दिन का उजाला
कम पड़ जाए तो रात को दूधिया
रोशनी से नहा दिन सा बना लेते हैं
और पैसे की नोंक से पैसे लुटते हैं
और जेबें काटते हैं।