भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घुसपैठ / राजीव रंजन

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:38, 9 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजीव रंजन |अनुवादक= |संग्रह=पिघल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं मुस्कुरायी थी कुछ सोचकर,
तुमने सोचा, मैं मुस्कुरायी तुम्हें देखकर।
फिर क्या था, तुम रोज मिलते मेरी
राहों में, अपनी नजरों से अवांछित
घुसपैठ करते हुए।
तुम्हारी नजरों के बलात्कार से
आहत, नुचे मन को समेट कर
मैं रोज नजरें झुकाकर निकल
जाती, फूलों भरी राह की चाह में,
हसीन ख्वाबों की दुनिया को
इस धरातल पर उतारने की
उत्कट अभिलाशा की पूर्ति के लिए।
लेकिन एक दिन तुम्हारी
वह नजर जबरन घुसपैठ
में कामयाब होती है, दहशदगर्दी
के साथ मेरी जिंदगी के हर
पल में, साँसों के हर उच्छ्वास में,
टूटे ख्वाबों के हर जर्रे में,
फूल से शूल बन चुभते
एवं लहूलुहान करते जिंदगी
के मेरे हरेक कदम में,
जब तुम्हारी तेजाबी नजर
तेजाब की बोतल बन एक
दिन टकराती है मेरे चेहरे से।