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पिघल रहा इंसान(कविता) / राजीव रंजन

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जल रही धरती जल रहा आसमान है।
इसके ताप से अब पिघल रहा इंसान है।
कोमल मृदुल अंग सारे धीरे-धीरे गल रहे।
बच रहे हैं तो लौह और पाशाण के अवशेश।
जल रहा है वह हृदय जो आदमी के-
अन्दर इंसान को जिंदा रखता था।
साथ ही जल रहा उसका गीत सारा।
और सूख रही सरस संवेदना सारी।
बच रहे हैं सिर्फ कुछ रूखे-सूखे शब्द।
लौह-पाशाण अवशेशों में छिपा अपने को
लेकिन बच रहा है शातिर दिमाग।
जो संवेदनहीन रूखे-सूखे शब्दों से प्राण बना
लौह पाशाण अवशेशों को बना देगा
संवेदन शून्य आदमी।
जिंदगी में जगमगाहट की ख्वाहिश में
इसने ही यह आग अन्दर सुलगाई थी।
साजिशन यह आग चारों तरफ फैलाई थी।